बहुत खुश था मैं........गाँव के बाहर

*बहुत खुश था मैं*
गाँव के बाहर
बड़े बाग़ के बीच
बरगद का एक पेड़ था
पेड़ पे झूला था
झूले पर मैं था
बहुत खुश था मैं
बहुत खुश…।


मित्रों के प्रेम का दोलन था
अनुभूतियों का आयाम था
भावनाओं की लंबी  उड़ान थी 
जीवन का एक
अर्थ था
बहुत खुश था मैं।


तब…!
मैं 
मां का चंदा
और 
पिता के सपनों का
सूरज था
पर फिर भी
गाँव का कोई बुज़ुर्ग
छोटी छोटी बातों में
मुझे डाँट देता था
उस पर भी ...
बहुत खुश था मैं
आज वो सब
स्वप्न सा लगता है
सुख है
पर अब खुश नहीं हूं
मैं


गोलोक विहारी जी 


राष्ट्रीय महामंत्री (राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच )