_🌹 "सुरति- निरति" 🌹_
सुरति- निरति शब्द का अर्थ :-
*सुरति* = सु + रति = सु- सुनने में, रति- लगे हुए ।
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए ।
*१. सुरति* :-
सुरति आत्मा की वह अवस्था है जो कि शब्द (सृष्टि में जो शब्द/रमा हुआ है) को सुनने की अवस्था को ही सुरति कहते हैं ।
'सुरति' शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सत्संग में जब सुरति शब्द का प्रयोग प्रायः होता रहता है तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते रह जाते हैं कि आखिर यह किसके विषय में बात हो रही है....? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है ।
मनुष्य की अपनी अज्ञानता के कारण उसकी सुरति 7 शून्य नीचे उतर आई है, इसीलिये मनुष्य को यह संसार अजीब और रहस्यमय दिखाई देता है...? अब सबसे पहले एक शून्य की बात करते हैं । प्रथम शून्य- यहां पर कुछ भी नहीं हैं, लेकिन बेहद अजीब बात यह है कि "इसी कुछ भी नहीं से ही है"....! सब कुछ हुआ है या कुछ नहीं ही सब कुछ है (Everything is nothing but nothing to everything)...!
सतगुरु कबीर साहेब जी महाराज ने इसी विषय में कहा है कि:-
*"चाह गई चिंता गई,*
*मनुआ बेपरवाह ।*
*जाको कछु न चाहिए,*
*वो ही शहंशाह" ।।*
पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन (vibration) होता है। दुसरे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) कुछ अधिक हो जाता है । तीसरे शून्य में कुछ और भी अधिक हो जाता है । चौथे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) और भी बढ़ जाता है, फिर पांचवां शुन्य और उसके बाद छटा शून्य । अब सातवें शून्य में यह प्रकंपन (vibration) शब्द रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी तरह के एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है ।
यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है ।
संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण में भी है ।
मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है या कामवासना, धन, ऐश्वर्य को भोग चुका है और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है तथा उसे सतगुरु के सान्निध्य में ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है तो सिर्फ़ सात दिन में इस शुन्य को जाना जा सकता है ।
बस शर्ते यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी...? क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर (निरंजन) से निरंतर सम्भोग करती रहती है । ये सब महज ज्ञान की बातें नहीं हैं । सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है ।
*२.निरति :-*
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए ।
निरति आत्मा की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वह शब्द स्वरुप/ ज्योति स्वरूप यानि परमपिता परमात्मा को निरखने/ देखने में लीन रहने लग जाए।
*सुरति और निरति = "श्रुति और निऋति"।*
परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना।